प्रेमशंकर रघुवंशीजी की कलम से
ऐसे में कैसे ********** जुबानों पर कुण्डियाँ लगी है दस्तकें तक डूब जाती इस महाचुप्पी में ऐसे में कोई भी कैसे गा सकता कोई छन्द क्योंकि जब जुबानें बन्द हो जाती हैं तो कान -नाक -आँख सभी हो जाते बन्द सबके सब पटक दिये जाते इस महाचुप्पी में मैंने यहीं...
हँसने के लिए ************ हँसने के लिए ढेर सारी चीजें नही चाहिए कुछ बेफिक्री ,कुछ उमंग कुछ आनंद और छाती भर आक्सीजन काफी है आक्सीजन ः जो हरे भरे पेडों से जन्म लेकर पानी की आत्मा बनती और पानी जो कण कण का जीवन होकर प्यार की चमक बनता हँसने...
बे मौसम बरसात *************** नदी की धार के नीचे चमकती बालू जितनी सुहानी लगती उतनी ही बुरी लगती घरों में घुसती रेत चूल्हे या अलाव की आग जितनी सुहानी लगती उतनी ही बुरी लगती गाँव तक आती दावानल पिकासो की गुएर्निका स्पेन के बाहर भी जितनी सुहानी लगती उतनी ही...
नदी -4 ******** फिर बोली नदी — मैं अब बारहों महीने बीमार हूँ मत छुओ ,छुओ मत मेरे गर्भ में फैक्टरियों का तेजाब पल रहा है मेरी इस हालत के जवाबदार तुम हो तुम तुम सब जब तीमारदार ही बिगाड़ दे कोख खो दे संयम तो कहाँबचेगी अस्मत ? मत...
नदी -3 ******* बोली नदी — कोई न कोई लड़की जब -तब डूब जाती मेरे भीतर अंधेरे में सूरज का अहसास खोकर सुबह वह एक चर्चा बनती फूल कर तैरती लाश के रुप में तब तनकर चलने की कोई भी उमंग नही होती तुम्हारे पास और मेरे पास होती है...
पिता कविता संग्रह – पहाड़ों के बीच (Pahadon Ke Beech) रचनाकार– श्री प्रेमशंकर रघुवंशी. चाहे जितना सर्द गर्म हो मौसम पिता भोर के पहले उठ आते नहा धोकर रोज रोज नहलाते घाटी से उगते सूरज को —-चमचमाते कलश से मुझे पिता का कलश हमेशा हमेशा सूरज से ज्यादा चमकदार लगता...
यहाँ जमीन पर कविता संग्रह – पहाड़ों के बीच (Pahadon Ke Beech) रचनाकार– श्री प्रेमशंकर रघुवंशी. ओ, सदियों से सोई घाटियों! तुम्हारे ऊपर पत्थरों की स्याह इबारतों में जो लिखा है उसे एकाध बार पढ़ तो लो! कर लो चाहे जितनी उपेक्षा किन्तु ये तुम्हारी ही आवाज की ठोस शब्दाकृतियाँ...
देखा, बिना नाम के तुम्हें देखा, बिना नाम के तुम्हें तो, सही दिखायी दीं तुम। खुद को भी इसी तरह देखा तो सही -सही देख लिया खुद को । अब, बिना किसी नाम के मिले हम जैसे कि नदी, नदी से मिलकर नदी होती है और सागर से उसकी खारी...
लहूलुहान है नदी ! कविता संग्रह (Nahi Rahne Ke Baad Bhi) नहीं रहने के बाद भी रचनाकार– श्री प्रेमशंकर रघुवंशी. गटरों के तेज़ाब से आहत छाले पड़ी देह पर बेशररम की झाड़ियाँ उगाए लहूलुहान है नदी तटों में दम नहीं कि एड़ियाँ घिसने के पत्थर ही बचा लें बचा लें...
सिल देना चाहती हैं नदियाँ ———————————- कितने भले रहे होंगे वे जिन्होंने रची होगी नदियाँ पाला, पोसा ,बड़ा किया होगा रचे होंगे – तीज -त्यौहार -उत्सव -मेले और कितने बुरे हुए जा रहे हम जो घोले जा रहे विष बहाए जा रहे सड़ाँध इनमें और चाहे जहाँ हाथ -पाँव बाँध...