मत करो

मत करो
********
मोड़ चाहे सफर के हों
या सड़क के -भले लगते हैं
गुजर करके सुरंगों से
आ रहे वे लोग
हो चुका जिनके जेहन में
आत्मघाती रोग
जहाँ देखो वहीं से वे
गले लगते हैं
बढ़ गये जो। भुलावों में
मरुथलों की ओर
जिन्दगी के साथ जिनकी
बँध न पाई डोर
पाँव उनके हर जगह से
जले लगते हैं
मत करो ऐसे नजारे
गम बढे़ जिससे
मत भरो ऐसे उजाले
तम बढे़ जिससे
कौमियत की कोख में जो
पले लगते हैं ।।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह “मुक्ति के शंख ” से उद्धृत )

You may also like...

Leave a Reply