पतझर के बाद गुलमोहर

पतझर के बाद गुलमोहर
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(1)
हरी देह पर
लाल हँसी है
दृष्टि सृष्टि की
यहाँ फँसी है
कल था जोगी
पूर्ण दिगम्बर
मस्ती उसमें
आज बसी है ।
(2)
जो विदेह था
हुआ सदेही
मनुआ नहीं रहा
वश में ही ।
(3)
भूत पछाडा़
जब पतझर का
रुप सिंगारा
तब बसंत का ।
(4)
लीक छोड़कर
बढो़ उधर ही
खडा़ जहाँ पर
गुलमोहर ही ।
(श्री प्रेक्षशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह ” सतपुडा़ के शिखरों से ” से उदधृत )

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