तवा

तवा
*****
चूल्हे पर चढ़ते ही
चमक उठती घर भर की आँखें
तब मेरी तपस्वी देह से
उठने लगती सौंधी बयार
चित्तियाँ पडी़ रोटियों की
फैल जाती पास पडो़स मुहल्ले तक
चौके की गमक
जो नाक के जरिये
जीभ पर मीठा स्वाद रचती
आँतों तक लार लार समा जाती
खिल खिल खुल जाती
कोशिकाएँ देर तक
मैं तवा हूँ तवा
भूख के लिए तृप्त आश्वस्ति
कि रोते बिलखते बच्चे भी
मेरी धूनी तक आते आते
भले चंगे किलकारियाँ भरने लगते
सदियों से आबरू की तरह
मुझे ही संभालती हुई औरत
अन्नपूर्णा है आज तक
और माँ है हर वक्त
आँच से नहलाती हुई मुझे ।।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” पकी फसल के बीच ” से उद्धृत )

You may also like...

Leave a Reply