अरदास करते वक्त

अरदास करते वक्त
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देवालय में घुस आया दैत्य
पूजा के शब्दोच्चार में
निखर रहा जिस का रुप
जय -जय कार के बीच
घूरता युवतियों को
अपने साम्राज्य की चीजों के माफिक
पूजा-प्रार्थना घर हो या कोई भी जगह
सबके सब बन गये उसके निवास
तभी तो अर्चना के सडे़ तरीकों में
उग आई फफूँद
घण्टों की अभिशप्त ध्वनियाँ कर देतीं
दैत्य को सावधान
तब तनिक देर को वह मूँद लेता आँखें
रोक लेता साँस
सुनने लगता अपनी ही विचलित धड़कने
पाली बदल कर आते अर्चक
चढा़ कर श्रध्दा सुमन होना चाहते
सभी पवित्र
किन्तु मंदिर में छिपा राक्षस
पोत देता स्याही
अरदास करते वक्त
साधकों के चेहरों पर
अपने -अपने आईनों के सामने
देखते जिनमें भुतही शक्लें खुद की वे
भूल जाते अपनी खण्डित पहचान
मुँह बायें देखते हैं लोग
दैत्य के चेहरे पर उभरी
महानाश की वीभत्स आकृतियाँ
रोम -रोम में लटके आणविक अस्त्र
उसकी मुट्ठियों में बंद है जमाना
जिसे वह जब भी दबायेगा
संसार टें हो जायेगा
अजगर- सी साँसों में
समाते जा रहे
आदमियों के जत्थे
डकारों से आ रही
मुर्दों की चिराँध
वीरान खण्डहरों पर छा रहे
माँस नोचते गिध्द
झगड़ते कुत्ते
हड्डियाँ कड़़कडा़ते कबरबिज्जू
हवा को तराश कर लिख रहा दैत्य
शून्य पृष्ठ पर आत्मकथ्य
उससे आकर जुड़ रहे
महानाश के सभी रास्ते
आदमी की सही पहचान के वास्ते
मिटाना ही होगा दैत्य को
घर -घर जाकर ! !
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” तुम पूरी पृथ्वी हो कविता ” से उद्धृत )

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