सिल देना चाहती हैं नदियाँ
———————————-
कितने भले रहे होंगे वे
जिन्होंने रची होगी नदियाँ
पाला, पोसा ,बड़ा किया होगा
रचे होंगे –
तीज -त्यौहार -उत्सव -मेले
और कितने बुरे हुए जा रहे हम
जो घोले जा रहे विष
बहाए जा रहे
सड़ाँध इनमें
और
चाहे जहाँ हाथ -पाँव बाँध
कैद किये जा रहे
छीने जा रहे
इनसे
खिलौने इनके –
कंकर, पत्थर, सीपे, घोंघे, शंख
यहाँ तक कि –
पहाड़-घाटी, चट्टानों भी
जिनसे कूदती, फाँदती, सरपट भागती
हर वक्त
तरोताजा रहती रहीं ये
इसके बावजूद
हाथों में श्वेत धारा के धागे पिरोये
धरती की एक -एक उखड़न -उधड़न को
सिल देना चाहती हैं नदियाँ!!
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “नहीं रहने के बाद भी “से उद्धृत)