नामुमकिन

नामुमकिन
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नहीं पढी़ होती हयग्रीव की कथा तो मैं भी
तुम्हारे द्वारा लगातार परोसी गालियाँ खाते हुए
लगातार मुस्कुराता नहीं वत्स !
वेदों को चुराने तक तो क्षम्य था हयग्रीव
क्योंकि तब कंठस्थ थे लोक को वेद
लेकिन उसने जब पूरा देवलोक ही मांगना चाहा
तो अन्तर्ध्यान हो गये थे
विष्णु ,यह जानते हुए कि
जब भी गलत हाथों में चला जाता राज्य, तो
वहाँ की प्रजा जीते जी मर जाती है ।
जब तुम्हें देने ही वाला था अपना ब्रह्रमास्त्र
तुम अपनी गुलेल से चिडि़याँ मार रहे थे
तब मैंने महसूसा कि उस वक्त तुम हयग्रीव हुए जा रहे थे
तभी से मैं तुम्हारे लिए अन्तर्ध्यान हूँ वत्स !!
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “नहीं रहने के बाद भी ” से उद्धृत )