कुछ वैसा ही

कुछ वैसा ही
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लिख लिखकर मैं होता प्रसन्न
पढ़कर बतलाता बार बार ! !
सूरज लिखता ज्यों ज्योतिपत्र
लिखता चंदा ज्यों धवल प्यार
तारे लिखते ज्यों नभ गंगा
बादल ज्यों लिखते धुआँधार
कुछ वैसा ही मैं भी लिखता
लिख लिखकर पढ़ता बार बार !
धरती ज्यों सिरजें सौंधापन
पर्वत सिरजे ज्यों वन उपवन
नदियाँ जैसे सिरजें धारें
सिरजें तट ज्यों खिलते जीवन
कुछ वैसा ही मैं सर्जित करता
सर्जन कर खिलता बार बार !
जैसे तितली रचतीं उडा़न
रचते प्राणी ज्यों प्रकृत ज्ञान
मधुमक्खी ज्यों रचतीं छत्ते
चिडि़एँ रचतीं ज्यों वृन्दगान
कुछ वैसा ही मैं भी रचता
रचकर दिखलाता बार बार !!!
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह ” सतपुडा़ के शिखरों से ” से उद्धृत )