हरे पेड़ यूँ लगते

हरे पेड़ यूँ लगते
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हरे पेड़ यूँ लगते
मानो पूजा गॄह हों हरे भरे
सुबह शाम जिनकी शीतल छाया
सजदे की मुद्रा में नत हों
क्षितिजों को छू लेती हैं
जिनके सिर पर स्वर्णकलश सी
सूर्य किरण चमका करती हैं
जिनपर बने घोंसले हर दिन
साँझ सकारे
उठ उठकर अजान देते हैं
करते हैं समवेत प्रार्थना पंख पखेरु
वायु के झोंकों से जिनके
पात पात चँवर डुलाते
मेघ जहाँ लेकर आते घटा नगाडे़
बिजली जिनके गर्भगृहों तक नाचा करतीं
गाकर मेघ मल्हार बदरिया भरे घटों से
जिनको ऊपर से नीचे तक नहला जातीं
तितली जिनके भालों पर चंदन टीकों -सी
अपने पंखों से पराग की गंध झरातीं
जिनके किसलय पर चाँद सितारे नभ से आकर अगणित हाथों से दीपदान करते झलमल
जिनकी जडों से जलधाराएँ फूट फूट कर भरतीं रहतीं
झरनों में है अमृत
जहाँ जहाँ भी हरे पेड़ निर्भीक खडे़ हैं
वहाँ वहाँ की धरती जीवित देवालय है
बिना किसी भी भेदभाव के ऐसी धरती
प्राण प्राण में प्राणवायु के वरदानों का आलय है ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के हस्तलिखित दस्तावेज से प्राप्त कविता इस पर तारीख लिखी है -फरवरी /2000)