गालियाँ जब भी

गालियाँ जब भी
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गालियाँ जब भी
भूगोल की सरहदें पार करतीं
पहले पहल इतिहास ही घायल होता
हर बार झुलसता उसका ही चेहरा ।
राजनीति के फरेब रचती गालियाँ
जब लोगों के दिलों में उतरतीं
तो पहले पहल दंगों का नंगापन लिये
षड्यंत्र करने लगता अँधेरा।
और रोशनी की कोई भी मुहिम
हिंसा के हाथों मिटा दी जाती
तब मजहब के नाम पर
मिथ्यागीत गाती गालियाँ
पथ -संचलन करती हैं
और संस्कृति के
मैदान पर
नफ़रत की
शाखाएँ रोपती हैं ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” देखा ,बिना नाम के तुम्हें ” से उद्धृत )

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