देखा, बिना नाम के तुम्हें

देखा, बिना नाम के तुम्हें
देखा, बिना नाम के तुम्हें
तो, सही दिखायी दीं तुम।
खुद को भी इसी तरह देखा
तो सही -सही देख लिया खुद को ।
अब, बिना किसी नाम के मिले हम
जैसे कि नदी, नदी से मिलकर नदी होती है
और सागर से उसकी खारी तासीर जाने बिना
अपना मीठा कोश लुटाती है।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “देखा, बिना नाम के तुम्हें “से उद्धृत)