आकार लेती यात्राएं
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इधर हिन्दी कविता में फिर से एक रोमाण्टिक उभार आया है और वह गाँव – शहर – नदी –पर्वत – जंगल के बीच रमने लगी है | किन्तु उसकी यह वापसी कुछ नये मक सदो से लैस है | वह जितना उन्हें पहचानने ,उनसे अपने पुराने रिश्तों को ताजा करने और उनमें होने वाले परिवर्तनों को नए सिरे से समझाने की इच्छा है ,उतनी ही इंसानी संघर्ष की बुनियादी शर्तो की जाँच परख की कोशिश भी है | जिस मानव संसार की तीव्र उत्कण्ठा से यह कविता जन्म लेती है,उसी की बेहतरी के प्रति यह सहजभाव से समर्पित भी है | कविता की यह सहजता उसी निसर्ग जीवन से चल कर आई है, जिसे वैज्ञानिक सभ्यता के जहरीले डंक अब भी नष्ट नहीं कर पाये हैं और न जिसे रचनात्मक और विकासगामी आधुनिकता से कोई परहेज ही है |
प्रेमशंकर रघुवंशी की कविताएँ इसी सामाजिक लगाव के वातावरण में समकालीन सवालों से सीधा टकरा कर अपने रूप और आकार ग्रहण करती है |
रघुवंशी का रोमानी अन्दाज समाज के यथार्थ की विविध भंगिमाओं की सही पहचान के साथ कभी मानव विरोधी परिस्थितियों के प्रति युयुत्सु मुद्रा में हमारे सामने आता है तो कभी एक अनुभवी और आत्मविश्वास योद्धा की तरह संयत गांभीर्य प्रदर्शित करता है | सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के पतानोन्मुख चरित्र को नंगा करते हुए यह कवि गुस्से की जिस पूंजी का इस्तेमाल करता है,वह भड़ास या खीज में रुपान्तरित न होकर एक सुनियोजित कार्रवाई (एक्शन) की और इशारा करती है |
यह बात दीगर है कि प्रेमशंकर रघुवंशी काव्य भाषा के मानक और परिष्कृत रूपों के बजाय उसे आंचलिक उच्चारणों और मुहावरों के समीप ले जा कर खड़ी कर देना चाहते है, जहां से उनके अनुभव और संवेदन चल कर आये है | अपनी इस कोशिश में वे जहां तहां काफी छूट भी लेते है |पर कवि को यह अधिकार शायद बहुत पहले से ही मिला हुआ- कवय: निरंकुश: |