रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़

रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़
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रूँ -रुँ बाजा रुँगताडा़
रुँगताडा़ भई रुँगताडा़
टी .व्ही .पर ऐलान हुआ
वन में गूँजी हुआ- हुआ
चोर उच्चके पायेंगे
बिन मेहनत मालपुआ
अगली सदी उन्हीं के नाम
जो सीखेगा गुनताडा़
रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़ – – -! !
जिनको होना था लकीर में
वे तो खडे़ हाशिए भीतर
जिनको होना था पहाड़-सा
वे फिरते राई- से दर-दर
जिन ईमानों में ताकत थी
उन सबने पल्ला झाडा़
रुँ -रुँ- – – – – – – ! !
होड़ मची मक्खनबाजों में
एक से बढ़कर एक हुए
साहब चाहें यदि प्याले भर
वे ले आते भरे कुए
अपने सर को हगा -मुता कर
बाँध रहे चमचे नाडा़
रुँ -रुँ – – – – -!!
थे महान नानाजी उनके
इनके दादाजी महान थे
उनकी अम्मा तेज हवा थीं
इनके अब्बा जी उफान थे
लेकिन इनने उनने मिल -जुल
घर को बना दिया बाडा़
रुँ -रुँ – – – – !!
(इस कविता का शेष अंश कल )
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह “मुक्ति के शंख” से उद्धृत )