गाँव मेरा सिरहना है

गाँव मेरा सिरहना है
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छन्नू दादा बताते रहे
गाँव के हाल देर तक
और लौटते हुए छोड़ गये फर्श पर
पगथलियों के निशान
जहाँ उभरने लगे खेत
भरने लगी कमरों में
फसलों की गंध धीरे धीरे
कि तभी आ लेटा गेंवडे़ वाला महुआ मेरे पास
और सुनाता रहा ढेर -से किस्से
जिनके हरेक सिलसिले
किसी न किसी दहलान से शुरु होकर
खारे कुओं की जगत पर खत्म होते
या एकांत बावडि़यों में छलाँग लगाती
अमराइयों की आत्महत्या पर या बागुडों के ऊपर
जाने कब तक बिवाइयों से कराहता
सुनाता रहा महुआ
और मैं बच्चे -सा सुबुकता
जाने कब सो गया
जहाँ गाँव सिरहना है
और शहर की चादर
मेरे देह पर पडी़ है ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” नर्मदा की लहरों से ” उद्धृत )

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