कवि की खोज में भटकती कविता

कवि की खोज में भटकती कविता
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आश्वस्त होना चाहती
कि मुझे —
कुछ दूर ही सही
जिंदगी के पास तो ले चलोगे कवि
आश्वस्त होना चाहती
कि मुझे —
गलत करने -कहने के लिए
विवश तो नहीं करोगे तुम
आश्वस्त होना चाहती
कि मुझे —
किसी दरबार की भोग्या तो नहीं होने दोगे
मेरे पास आने वालों में
ज्यादातर मुझे —
शब्दों की अलंकृत रखैल के रुप में
इस्तेमाल करते
फिर मेरे गर्भ में पल रहे साबुत अर्थ को
जनम के पहले ही
अपनी हरकतों से
हलाल करते हैं
बार -बार यही होता रहा
बार -बार
इसी दोहराव से परेशान
किसी भरोसेमंद की खोज में
अर्से से भटक रही हूँ
थकना मेरा स्वभाव नहीं
न रुक जाना
मैं तो झरने की तरह
बहने वाली धार हूँ
बहती हवा हूँ लगातार
अँधेरा छाँटती
सूरज से पहले
पहुँचने वाली किरण। हूँ हर जगह
वसुंधरा हूँ
आत्मा में आकाश की
नीलिमा ओढे़
मैं तो
गति अगति से परे
अपनी ही
यथार्थ गति में तल्लीन हूँ
लेकिन जब भी कोई
कोरी भावुकता के मद में
डुबो देता मुझे
कोरे विचारों की
चकाचौंध से भरमा देता
तो मैं अक्सर
बेहताशा भागने लगती
अब इसी भागम भाग से
काफी ऊब चुकी हूँ
ऐसे में तुम —
माथे पर बिना कोई आसमान धरे
जमीन के बारे में सोचते मिले
तो मुझे —
तुम्हारे खडे़ होने के पुरुषार्थ पर
यकीन हुआ है
मैं भी तुम्हारे साथ
यहीं खडी़ होने को बेताब हूँ
ताकि धुंध में डूबी धरती के
रचाव में लग सकूँ फिर से
आश्वस्त हूँ कि मुझे
इंकार नहीं करोगे तुम
बोलो!मेरा धरती कद साहचर्य
पसंद है न तुम्हें ! !
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” नर्मदा की लहरों से ” से उद्धृत )

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