हमें ही परचानी होगी आग

हमें ही परचानी होगी आग
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लोग हैं कि कानून बना मिटा रहे
लोग हैं कि रेलों -बसों-यानों में आ -जा रहे
लोग हैं कि कोठियों सहित नम्बर दो हुए जा रहे
लोग है कि झोपडि़यों सहित बंधुआ किये जा रहे
लोग है कि तन -बदन के धंधों में है
लोग है कि मन के छलछंदों में है
और हम सपनों में है कि कहीं न कहीं सत्य सुलगे
जाने क्यूँ भीतर से लगने लगा है
कि वह घडी़ जाने कब आये
अब तो हमें ही परचानी होगी आग
बिना किसी इन्तजार के
घर -घर बेहिचक ! !.
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” तुम पूरी पृथ्वी हो कविता ” से उद्धृत )

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