रुँ-रुँ बाजा रुँगताडा़

रुँ-रुँ बाजा रुँगताडा़
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(21/5/21 के अंश से आगे )
ये सारी सुविधाएँ ओढे़
हमको नहीं नसीब रोटियाँ
उन पर ऋतुएँ मेहरबान हैं
हमें मिली केवल लँगोटियाँ
तिसपर भी वे हमें पेरते
गर्मी हो या हो जाडा़
रुँ -रुँ – – – ! !
हत्यारे आते हैं झटपट
जाने कहाँ बिला जाते
हम जमीन पर खोजें उनको
वे पाताल चले जाते
दूर -दूर तक जमता जाता
सड़कों पर लोहू गाढा़
रुँ-रुँ – – – – -!!
गोली चलती है धरती पर
पुलिस सितारों तरफ दौड़ती
गुण्डों और लीडरों के बल
आम आदमी को भमोड़ती
लफ्फाजी से जनसेवा का
पिला रहे सबको काढा़
रुँ-रुँ – – – – -!!
लगी अदालत नाच देखने
सुना रहे चुटकुले वकील
कान खुजाते न्यायाधीश जी
फरियादी पर उड़ती चील
मुवक्किलों को पछियाते ये
जैसे लाडी़ को लाडा़
रुँ-रुँ – – – – – !!
मजहब बंधे कसाई के घर
फिरे मुहब्बत छरक बाँगली
कोई रखवाला न शान्ति का
हुई सियासत झटक चाँगली
भलमनसाहत की छाती को
जाने किन -किन ने फाडा़
रुँ-रुँ- – – – – !!
नानक के आँगन में नकटे
कठमुल्ले कबिरा के घर में
तुकाराम के मठ में तस्कर
रहजन हैं रहीम के दर में
इनको चौखट से निकाल कर
रहते ये सब बिन भाडा़
रुँ -रुँ – – – – -!!
(कविता का शेष और अन्तिम अंश कल )
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह ” मुक्ति के शंख ” से उदधृत )