अग्निमुख –

अग्निमुख

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रजकण से लेकर
चट्टान बनने तक की प्रक्रिया में
तुमने —-
आग को
हमेशा -हमेशा
अपनी
छाती में
छुपाये रखा
चट्टानों !
कब तक और दोगी सृष्टिक्रम की साक्षी
एक बार
अपने अग्निमुख तो खोलो !!

( श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह —— “पहाड़ों के बीच ” से उद्धृत )
आदमी की सहनशीलता पर विचार करते हुए एक बार भरपूर चेतना से जागने का आह्वान करती कविता है आज की ।रेत के सबसे छोटे कण से मिलकर बनी बड़ी बड़ी चट्टानें सचमुच रज याने धूल का परिवर्तित रुप ही तो है ।पृथ्वी का हर प्राणी यों तो अपने आप में धूल जितनी ही हैसियत रखता है लेकिन जब वह समय के दबाव को सहता है और धीरे -धीरे अपने भावात्मक स्वरुप को एक गंभीर चरित्र में बदलता है ।यही आदमी की शख्सियत हैं ।यही उसका व्यक्तित्व बनता है लेकिन निर्माण का दबाव सहते सहते वह जिस घनघोर चुप्पी का अनुपालन करता है वह बहुत ही मुश्किल और जोखिम भरी होती है ।यह चुप्पी उसे भय की जकड़न और समझौतों के चक्रव्यूह में धकेल देती है ।वह निरंतर निर्माण के दबाव को सहते हुए अपना आत्म परिचय ,आत्म ज्ञान भूल जाता है ।केवल सृजन और सृष्टि ही उसकी चेतना पर हावी हो जाते हैं ।यह सृजन समाज हित ,परिवार हित ,और राष्ट्र हित में होता है ।सृजन का दबाव इतना होता है कि आदमी चट्टान की तरह सख्त हो जाता है ।यह दृढ़ता ही वह दबाव है जिसके कारण मनुष्य की अपनी चेतना और फ़िक्र दोनों नगण्य हो जाती है ।यह वह अवस्था है जहां आदमी अपना मूल स्वरुप छोड़ कर परहित हेतु धारण किया गया लोकहित कारी व्यक्तित्व धार लेता है इन स्थितियों में अपनी इयत्ता अपनी जागरुक अस्मिता का क्षरण करता है ।यह शोषण की हद तक पहुंच जाने वाली परिस्थिति होती है । इसीलिए लोकहित छवि का अनुभव करते हुए भी अपनी अस्मिता अपने अस्तित्व का आत्मज्ञान यथावत बनाए रखना ही वास्तविकता है ।यह स्थिति स्त्री के रुपकों को बहुत सहनी पड़ती है ।यहां चट्टान स्त्री के प्रतीक रुप में ही प्रयुक्त हुई है ।रज से लेकर चट्टान तक में रुपान्तरित होती स्त्री हर समय एक सृजन की निरंतरता से गुजरती हुई भी अपने भीतर अपनी अस्मिता की आग छुपाये रहती है ।जो उसे वह दृढ़ता देती है जिससे वह सब स्थितियों का मुकाबला करते हुए अपना आत्म रुप विसर्जित करती रहती है ।स्त्री की सार्थकता इसी में है कि एक बार वह स्वयं अपने आत्म स्वरुप से रु -ब -रु हो ।एक बार अपने भीतर दबी आग को ज्वाला की तरह प्रगट करे ।एक बार वह अपने अस्तित्व का वास्तविक पहचान जीवन और जगत को कराए ।वह धरती पर केवल सृष्टि सृजन की नियामक। ही नहीं वरन उसके व्यक्तित्व के बहुत बहुत सारे मायने हैं ।वह पालन हार ही नहीं वरन इसके भीतर ही वह वाग्देवी, शक्ति , सम्पन्न ता ,ममता ,और संसार के भावनात्मक जगत का ,बौध्दिक जगत का , चेतना और संवेदना की गहरी अनुभूति अनुभव और अस्मिता की संवाहक भी है ।स्त्री के बिना सृष्टि की सभी संभावना निर्मूल है ।इस हैसियत से अनजान समग्र खगोल -भूगोल और ब्रह्माण्ड स्त्री जाति की अवहेलना ,अपमान ,तिरस्कार में मशगूल हैं ।इसी को ध्यान में रखते हुए स्त्री से ज्वालामुखी बनने का आह्वान किया गया है ।स्त्री जाति के इसी तिरस्कार और नाश के विरुद्ध समग्र स्त्री की चेतना को जागृत करने का प्रयास कविता में किया गया है । अपने अस्तित्व का मुखर उद्घोष ही वह ज्वाला है । स्त्री को श्रृंगार और सौन्दर्य की दुनिया से बाहर चेतना की दुनिया में पदार्पण करना होगा ।यही वह ज्वाला है । जो उसके आत्म ज्ञान को प्रतिष्ठित करेगी ।केवल धनार्जन उसकी वास्तविक पहचान नहीं है । उसकी वास्तविक पहचान और परिचय तो संवेदनशील चेतना ही है ।
🙏विनीता रघुवंशी

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