गीतों के

गीतों के
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गीतों के हरे भरे नंदन में
जाने ये क्या हुआ ?
कोसों तक उठती थी
टेसू की सुर्ख हँसी
कोसों तक महुए की
मनुहारें सुनते थे
कोसों से दूधई की
धवल देह दिखती थी
कोसों से रींझा की
पुष्प गंध आती थी
हैंकडी़ मिटाती थी
मौलसिरी चन्दन की
महीनों तक अमलतास
बतियाते रहते थे
दुर्वा और अक्षयवट
संग साथ गाते थे
लेकिन यह क्या हुआ
सारा वन झुलस गया !!
हरे भरे – – – – –
पहले भी
कई बार
दावानल लगती थी
बाँसों की हरी हरी
झौंर से बुझाते थे
गाँवों के गाँव उमड़
पड़त थे जंगल में
पेडों के प्राण सभी प्राण से बचाते थे
लेकिन अब नंदन में
तीलियाँ जलाये जो
उन पर हम खडे़ खडे़
तालियाँ बजाते हैं
उपवन की —
आदिम रखवाली के
सपनों का क्या हुआ ?
गीतों के – – – –
बदलो अब लुंज पुंज
रखवाले बदलो
बदलो अब गीतों के
माली को बदलो
बदलो अनुभूतिहीन
रागहीन दर्शक को
गीतों की धरती पर
बदलो रसहीन
निविड़ शिल्प ,बंद बदलो
बदलो संवेदन से
हीन छंद बदलो
बदलो अब उन
तमाम गतियों को जिनकी उच्छवासों से
झरती है बद्दुआ !!
गीतों के हरे भरे नंदन में
जाने यह क्या हुआ ??
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह ” मुक्ति के शंख ” से उद्धृत )