डूबकर डूबा नही हरसूद

डूबकर डूबा नही हरसूद
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(लम्बी कविता का अंश )
इसी नर्मदा की पावन देही की
शल्य क्रिया कर
वास्तुविदों संग तुमने ऊँचा बाँँध बनाया
और छीन ली रेवा उन आदि निवासी
वनचर वनवासी समाज से
जो मेहनत कर
रेवा के बल पर जीते थे
उन्हें भिखारी बना दिया युग युग तक
तुमने !
याद रखो
कि चीजें नही होती
सिर्फ चीजें
जुडी होतीं कई कई संवेदनाएँ
उनके साथ हमारी
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चीजें ही नही डुबाई तुमने
डुबा दी संवेदनाएँ
कि जिनमें बाप दादों की अमानत
कईं रुपों में रखी थीं —
माँ बहन बेटी सभी के पास
झोली में जतन से
पदचिन्ह तक भी
नहीं होते खत्म
चाहे रेत में हों —
कि जिनको देख करके पीढि़याँ
प्राप्त करती आ रही हैं मँजिलें अब तक
और जो अर्जित किया था
पूर्वजों से आज तक
वह सभी कुछ
स्याह जल में बिना सोचे
डुबो कर के धर दिया तुमने
देख लो उन बुलबुलों को
जो निरन्तर उठ रहें हैं
बाँध के सूने तटों के नीर से
वे हमारी
इन्हीं डूबी हुई चीजों
और भावों विचारों की
आह में डूबी उसांसें हैं
बेकवाटर के सरीखे
इन्हीं काले कारनामों से सने
काले इरादों ने तुम्हारे
सभी पाँचों महाद्वीपों में
सिर्फ सत्ता और धन की लालसा से
नाश के काँटें बिछाये हैं
उन अनेक देशों में
जो कि अपनी प्रजा के उत्थान में
मनुजता के गीत गाते
नव सृजन की ज्योति लेकर
रात दिन श्रम साधना में लीन हैं —
सारी दिशा में
यह सच है कि
एक न एक दिन छँट जाती है राख
और धरती फिर से हो जाती शस्यश्यामला
लेकिन कभी नही मिट पाते
उन घावों के निशान
जो सियासत ने दिए हों
व्यवस्था के गुप्त शस्त्रोंसे
इन्हीं घावों को लिए मन में
फैल जायेंगे जमीं पर हर कहीं
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी की लम्बी कविता ” डूबकर डूबा नही हरसूद ” से एक अंश उद्धृत )

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