देखा बिना नाम के तुम्हे
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प्रेमशंकर रघुवंशी का नया काव्य संग्रह ‘देखा, बिना नाम के तुम्हें’ अपने नाम के अनुरूप उस काव्य दृष्टि का परिचय देता है, जो जीवन-जगत के दृश्य-अदृश्य उन हलचलों-खामोशियों को देख लेती है जिनका आमतौर पर कोई नात नहीं होता। अनाम भावनाओं-संवेदनाओं को एक नाम देने की काव्यगत कोशिश की रचनात्मक बेचैनी का सबूत देता यह संग्रह प्रकृति, प्रेम और प्रतिरोध के अंकन की खामोशी पर दुर्लभ पहल का नतीजा है। भाव और भाषा की सादगी और ताजगी से युक्त इस संग्रह की कविताओं की व्याप्ति जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। चीजों को नया नाम देने की चिंता की संस्कृति का विकास करती इन कविताओं से गुजरना नये काव्य-अनुभव से गुजरना है। तथाकथित विकासवादी तोड़-फोड़ के बीच मानवीय संवेदना के धरातल को ये कविताएं न सिर्फ उन्नत करती है, बल्कि उसे सुंदर से सुंदरतर भी करती है। प्रकृति, प्रेम और प्रतिरोध जैसे स्थायी भाव तंतुओ से निर्मित प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में आत्मीयता की ऐसी गुनगुनी ऊष्मा है जिसके कारण यह दुनिया प्यारी हो उठती है। अपने तीनों स्थायी भावों के जरिये रघुवंशी समकालीन हिंदी कविता को न सिर्फ सृमद्ध करते हैं बल्कि उनसे नये लोक की सृष्टि भी करते हैं।
‘देखा, बिना नाम के तुम्हें’ प्रेमशंकर रघुवंशी की काव्य यात्रा की गतिशील रखते हुए नया मोड़ देने वाला संग्रह है, यह बेहिचक कहा जा सकता है।
-गोपेश्वर सिंह
प्रेमशंकर रघुवंशी की कविताएं पारदर्शी कवि की रचनाएं हैं। ये मानव संसार की तीर्व उत्कंठा को जन्मती हैं तथा मनुष्य की बेहतरी के लिए तत्पर होती है। इनकी कविताओं में वैज्ञानिक सभ्यता के जहरीले डंक भी है। इनकी कविताएं समकालीन सवालों से सीधी मुठभेड़ करती है। प्रेमशंकर ग्रामीण संवेदना के जबर्दस्त रचनाकार हैं। आंचलिक भाषा, शब्द संवेदना इनके साथ जन्म से जुड़ी हैं। ग्राम्य जीवन उनका प्रेरक काव्यलोक है। कविताएं लगातार पराजित होती जा रही हैं। उन्हें हाशिए पर डाला जा रहा है, इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया व्दारा। पराजित कवियों की हार का दुख किसी भी सजग रचनाकार के लिए असहनीय हैं। प्रेमशंकर रघुवंशी इस हार के दुख को कविता की दिशा के साथ बदलने का कार्य कर रहे है। यही उनकी प्रतिबद्धता है।
प्रेमशंकर रघुवंशी का नया काव्य संग्रह ‘देखा, बिना नाम के तुम्हें’ अपने नाम के अनुरूप उस काव्य दृष्टि का परिचय देता है, जो जीवन-जगत के दृश्य-अदृश्य उन हलचलों-खामोशियों को देख लेती है जिनका आमतौर पर कोई नात नहीं होता। अनाम भावनाओं-संवेदनाओं को एक नाम देने की काव्यगत कोशिश की रचनात्मक बेचैनी का सबूत देता यह संग्रह प्रकृति, प्रेम और प्रतिरोध के अंकन की खामोशी पर दुर्लभ पहल का नतीजा है। भाव और भाषा की सादगी और ताजगी से युक्त इस संग्रह की कविताओं की व्याप्ति जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। चीजों को नया नाम देने की चिंता की संस्कृति का विकास करती इन कविताओं से गुजरना नये काव्य-अनुभव से गुजरना है। तथाकथित विकासवादी तोड़-फोड़ के बीच मानवीय संवेदना के धरातल को ये कविताएं न सिर्फ उन्नत करती है, बल्कि उसे सुंदर से सुंदरतर भी करती है। प्रकृति, प्रेम और प्रतिरोध जैसे स्थायी भाव तंतुओ से निर्मित प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में आत्मीयता की ऐसी गुनगुनी ऊष्मा है जिसके कारण यह दुनिया प्यारी हो उठती है। अपने तीनों स्थायी भावों के जरिये रघुवंशी समकालीन हिंदी कविता को न सिर्फ सृमद्ध करते हैं बल्कि उनसे नये लोक की सृष्टि भी करते हैं।
‘देखा, बिना नाम के तुम्हें’ प्रेमशंकर रघुवंशी की काव्य यात्रा की गतिशील रखते हुए नया मोड़ देने वाला संग्रह है, यह बेहिचक कहा जा सकता है।
-गोपेश्वर सिंह
प्रेमशंकर रघुवंशी की कविताएं पारदर्शी कवि की रचनाएं हैं। ये मानव संसार की तीर्व उत्कंठा को जन्मती हैं तथा मनुष्य की बेहतरी के लिए तत्पर होती है। इनकी कविताओं में वैज्ञानिक सभ्यता के जहरीले डंक भी है। इनकी कविताएं समकालीन सवालों से सीधी मुठभेड़ करती है। प्रेमशंकर ग्रामीण संवेदना के जबर्दस्त रचनाकार हैं। आंचलिक भाषा, शब्द संवेदना इनके साथ जन्म से जुड़ी हैं। ग्राम्य जीवन उनका प्रेरक काव्यलोक है। कविताएं लगातार पराजित होती जा रही हैं। उन्हें हाशिए पर डाला जा रहा है, इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया व्दारा। पराजित कवियों की हार का दुख किसी भी सजग रचनाकार के लिए असहनीय हैं। प्रेमशंकर रघुवंशी इस हार के दुख को कविता की दिशा के साथ बदलने का कार्य कर रहे है। यही उनकी प्रतिबद्धता है।
-राधेलाल बिजधावने