बहती रही नदियाँ

बहती रही नदियाँ
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देखते रहे
नीची नजरों से शिखर
घूरती रहीं
निकृष्ट निगाहों से घाटियाँ
किन्तु इनकी परवाह किये बगैर
पहाड़ की नसों से होकर
बहती रही नदियाँ ।
पढ़ती रहीं जोर -जोर से
अपने तटों की जन्मकुण्डली
जिन्हें सुनते वनस्पतियों संग
खिलखिलाते रहे संगम तक कछार
और पहाड़ से होकर बहती नदियाँ
रचती रहीं हरे -भरे लोकाचार ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” देखा ,बिना नाम के तुम्हें ” से उद्धृत )