Author: Dr. Vinita Raghuvanshi
पानी में ******* शीतलता है ज्वाला भी है पानी में संजीवनी है हलाहल भी पानी में गंगा रेवा सागर की भी संस्कृतियाँ है पानी में कमला भी है रंभा भी है पानी में वीणा ध्वनि अनुगूँज शंख की पानी में धन्वंतरि की औषधसिध्दि पानी में दूध सरीखी फेन उठाती कामधेनु...
ऐसे में कैसे ********* ऊँट चाहे जिस करवट बैठे रेगिस्तान में अच्छा लगता है जहाँ वह कररवटें बदल -बदल कर रेत के पहाडो़ से खुद को और दूसरों को बचाता है लेकिन जब वह बगीचों में आने पर भी करवटें लेना नही छोडे़ तो ऐसे में क्या पूरे बगीचे को...
बोलो गम ********* बोल भाई ! बोलो गम अब तो शेष रहे हम तुम ! बोलो भाई बोलो गम चोर बडा़ या नंगा ऊँचा है न किसी से कोई कम ! उन्हें सिर्फ खुद की चिंता है चाहे जग हो नरम गरम ! रहबर तो दाखिल दफ्तर हैं रखे जहाँ...
बौराया प्यार दो ************** बासंती बेला में बौराया प्यार दो –। चाहे दो पल को ही मौसम का ज्वार दो ।। रोक लो मुझे तनिक अमुवा की छाँव में बुलबुल की बस्ती में कोयल के गाँव में मौसम से मेरा तन -मन सिंगार दो । बोर दो मुझे तनिक बौराई...
रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा ***************** लगे लबारी ढोल पीटने नाच रहे गलियों में नंगे भिन्न -भिन्न फिरकों में बँट कर भड़काते रहते दंगे ऐसे ऐसे काम करे ये ज्यों यमराजों के पाडा़ रुँ -रुँ – – – – -!! समीकरण सब फेल हो रहे अव्वल पास हुई बेकारी नौजवान लाचार...
रुँ-रुँ बाजा रुँगताडा़ ***************** (21/5/21 के अंश से आगे ) ये सारी सुविधाएँ ओढे़ हमको नहीं नसीब रोटियाँ उन पर ऋतुएँ मेहरबान हैं हमें मिली केवल लँगोटियाँ तिसपर भी वे हमें पेरते गर्मी हो या हो जाडा़ रुँ -रुँ – – – ! ! हत्यारे आते हैं झटपट जाने कहाँ...
रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़ ****************** रूँ -रुँ बाजा रुँगताडा़ रुँगताडा़ भई रुँगताडा़ टी .व्ही .पर ऐलान हुआ वन में गूँजी हुआ- हुआ चोर उच्चके पायेंगे बिन मेहनत मालपुआ अगली सदी उन्हीं के नाम जो सीखेगा गुनताडा़ रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़ – – -! ! जिनको होना था लकीर में वे...
पतझर के बाद गुलमोहर ******************** (1) हरी देह पर लाल हँसी है दृष्टि सृष्टि की यहाँ फँसी है कल था जोगी पूर्ण दिगम्बर मस्ती उसमें आज बसी है । (2) जो विदेह था हुआ सदेही मनुआ नहीं रहा वश में ही । (3) भूत पछाडा़ जब पतझर का रुप सिंगारा...
विजय ****** पाँव मेरे बहुत जिद्दी हो गये हैं इन्हें चलने के अलावा सूझता कुछ भी नहीं और तेरा शुक्रिया कर लूँ कि तूने व्यथाएँ इतनी बिछा दी राह पर कि उनसे बात करते सफर कटता जा रहा है किन्तु आकर देख तो लो ये व्यथाएँ जो तुम्हारी भेंट थीं...
कुछ वैसा ही *********** लिख लिखकर मैं होता प्रसन्न पढ़कर बतलाता बार बार ! ! सूरज लिखता ज्यों ज्योतिपत्र लिखता चंदा ज्यों धवल प्यार तारे लिखते ज्यों नभ गंगा बादल ज्यों लिखते धुआँधार कुछ वैसा ही मैं भी लिखता लिख लिखकर पढ़ता बार बार ! धरती ज्यों सिरजें सौंधापन पर्वत...