पिता की डायरी

पिता की डायरी
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माँ ने जतन से रखी है पिता की डायरी
चाहे जब एकान्त में फेरती उस पर हाथ
ठीक उसी तरह जैसे कि —-
आखरी वक्त तक फेरती रही थी
पिता की देह पर
मेरी जाँघ पर
सिर रखे उस दिन
मानों एक एक साँस का हिसाब -किताब
चुकता करते हुए
चल बसे थे पिता
जस की तस —
बेदाग पडी थी उनकी देह —
छोडी़ हुई डायरी की तरह
साँस का आखरी तारर टूटने तक
समझाते रहे थे पिता
यह कहते हुये कि–
सिर्फ हिसाब के लिये ही
रखी थी डायरी उनने अपने पास
फिर कहा था मुझसेयह कि —
सौंप कर जा रहा हूँ तुम्हें
ज्ञान गूदडी रचता ये आसमान
माटी के दिये उजालती ये धरती
लगातार घूमती समय की सुइयाँ
और पल पल संघर्ष करता हुआ समाज
यही सब तुम्हें
परिवार के साथ सौंपकर जा रहा हूँ बेटे
तुम इसे पृष्ठ पृष्ठ
गुनते पढ़ते रहना मेरे बच्चे !
तब से मुझे नींद में जब तब
इसीतरह बतियाते
दिखाई देते हैं पिता
और तभी से
रख छोडी़ है माँ ने अपने पास
जतन से पिता की डायरी ।।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “पकी फसल के बीच ” से उद्धृत )

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