विजय

विजय
******
पाँव मेरे बहुत जिद्दी हो गये हैं
इन्हें चलने के अलावा
सूझता कुछ भी नहीं
और तेरा शुक्रिया कर लूँ कि तूने
व्यथाएँ इतनी बिछा दी राह पर
कि उनसे बात करते सफर कटता जा रहा है
किन्तु आकर देख तो लो
ये व्यथाएँ जो तुम्हारी भेंट थीं मुझको
आज मेरे साथ काफी बात करती चल रही है
मल रही हैं ये सभी अभिव्यक्तियाँ मन प्राण पर
जिन्हें तुम मेरे खिलाफ खडी़ करके हँस रहे थे
आज वे मेरी प्रिया हैं
क्रिया है मेरी समूची यात्रा की
दिग्विजय डट कर करुँगा एक दिन
और तब जयकार जो मेरी करेंगे
उन्हें रोकूँगा -कहूँगा -यह विजय मेरी नहीं है
यह विजय तो आदमी के पाँव की है
जो सदा से ही चरैवेति रहे हैं
इसलिए जयकार केवल
इन्हीं जिद्दी पाँव की हो
जो कभी थकते नहीं !
जो कभी रुकते नहीं ! !
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह “मुक्ति के शंख” से उदधृत )

You may also like...

Leave a Reply