आदमी होते ही

आदमी होते ही
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हमसे ज्यादा
कल्याणकारी है पेड़
कार्बन का गरल पान करते
और बदले में
लुटाते आक्सीजन का अमृत
हमसे ज्यादा तत्ववती हैं लताएँ
जो फूलती -फलती समर्पित होती हैं
हमसे ज्यादा कर्मनिष्ठ हैं मेघ
जो सूर्य किरणों की
सीढियाँ चढ़
आकाश से मारते
धरती पर छलाँग
हमसे ज्यादा
मैथुनी है सृष्टि
तभी तो
अपने वंश वध्दर्न में
भोगमग्ना है
योनियाँ सभी
हमसे ज्यादा
दहहाड़ते हैं शेर
बोलते हैं हमसे ज्यादा
रुपकों में उल्लू
हमसे ज्यादा जड़ है पहाड़
चंचल है हमसे ज्यादा नदियाँ
हमसे ज्यादा
स्थूल है पदार्थ
सूक्ष्म है हमसे ज्यादा अवकाश
सब कुछ है ज्यादा हमसे
इसके बावजूद
इन्सान होते ही
सबसे ज्यादा हैं हम
उनसे भी
जो सबसे ज्यादा हैं
या इतने ज्यादा
कि ज्यादा से ज्यादा होते जाते हैं जो ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह ” नहीं रहने के बाद भी ” से उद्धृत )