लौट रहे हैं गाँव में

लौट रहे हैं गाँव में
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बहुत दूर से
खलिहानों तक
हल्की हल्की लाल लाल सी
धूल उड़ रही
निश्चय ही
चेतुए खेत से
संझ्झा के संग
लौट रहें हैं गाँव में
बहुत दूर से
मगरी मगरी
घुंटुरियों की
ताल आ रही
निश्चय ही
जंगल से छककर
सभी मवेशी
लौट रही हैं गाँव में
बहुत दूर से
चरवाहों की हँसी ठिठौली
फटकी खोले
आँगन आँगन समा रही है
निश्चय ही वे
जनी गाय के बछडे़ -बछिया
गोद उठाये
लौट रहे हैं गाँव में
बहुत दूर से
हरे घास की
कचपचिया -सी
गंध आ रही
निश्चय ही
कक्का माथे पर
गट्ठर लादे
लौट रहे हैं गाँव में
बहुत दूर तक उड़कर पंछी
लौट रहे हैं गाँव में
सुबह सुबह पथ भूल चुके वे
लौट रहे हैं गाँव में
चूल्हे चूल्हे दाल पक रही गाँव में
खाने और खिलाने की रट गाँव में
चौपालों पर गुदडी़ बिछ रही गाव में
सबके सुख दुख बाँट रहे सब गाँव में ।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह ” सतपुडा़ के शिखरों से ” उद्धृत )

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