जन -जन को

जन -जन को
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कई मर्तबा पीटा गया /पहली बार तब /जब मैं अपने गाँव जमानी की पाठशाला में /प्रभात फेरी के बाद /झण्डा गीत गाते हुए /खलिहान की जामुन पर /तिरंगा लहराकर नीचे उतरा था /
दूसरी मर्तबा का तो /मेरे बाल सखाओं को भी पता होगा /जब शिवपुर से /विभाजन के वक्त /पाकिस्तान जा रहे लोगों के साथ /चूड़ी वाली सलमा भुआ को /पगढाल स्टेशन तक छोड़ने गये थे /तब वहाँ से लौटते ही /काफिर कहते हुए /मार -मार अधमरा किया था मुझे
वह पन्द्रह अगस्त 1947का दिन था /जिस दिन मैं एक आँख से /सलमा भुआ को याद कर रो रहा था /और दूसरी से /आजादी की खुशी से तर हो रहा था
तीसरी बार तब पिटा /
जब गाँधी जी की हत्या हुई
और अब ये हाल है
कि जहाँ भी जाकर
अधिकार की बातें करता
लोकतंत्र के नाम पर तैनात —
अदृश्य डण्डे मेरी पीठ ,पेट, दिल, दिमाग पर /एक साथ फटे बादलों की तरह /बरसते हैं
फिर भी इनका सामना करता /जन -जन को धारदार बनाने /घूम रहा हर जगह ठाट से।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “आँगन बुहारते वक्त “से उद्धृत)

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