“संविधान के पृष्ठ पर “कविता का शेष और अन्तिम अंश

इसके बाद वे सब
अपने -अपने तंतर -मंतर
अपने -अपने धतकरम में
मशगूल हो जाते हैं
——-और स्वाधीनता इन कारनामों को देखते- सुनते
जाने कब सो जाती फिर से जिसे उठाने के बहाने
बीच -बीच में उसके कान के पास जाकर जोर से समाजवाद चिल्लाता है ‘,तो कोई साम्यवाद, कोई बाज़ारवाद, कोई सम्प्रदायवाद, तो कोई अलगाववाद के नारे लगाते हुए, उससे कहना चाहते हैं कि वह खतरे में है —
——लेकिन वह तो
इन सबसे परे आज उं करती
करवटें बदल -बदलकर खुर्राटे भरने लगती है
और लोग हैं कि
बिना सोचे -बिचारे
अपने -अपने सदन,
अपनी-अपनी संसद में
हो -हल्ला करते हुए
सिर्फ वक्त काटने की
(बे) -रोजगारी करते हुए
अपने -अपने चरित्रों के
सत्यापन में लगे हैं।
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के कविता संग्रह “नहीं रहने के बाद भी “से उद्धृत)