रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा

रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा
*****************
लगे लबारी ढोल पीटने
नाच रहे गलियों में नंगे
भिन्न -भिन्न फिरकों में बँट कर
भड़काते रहते दंगे
ऐसे ऐसे काम करे ये
ज्यों यमराजों के पाडा़
रुँ -रुँ – – – – -!!
समीकरण सब फेल हो रहे अव्वल पास हुई बेकारी
नौजवान लाचार घूमते
ये ताकत कितनी बेचारी
शंकाओं का काला दानव
सबके दरवज्जे ठाढा़
रुँ -रुँ – – – – ! !
पट्टे मिलते नाजायज को
जायज को मिलती जंजीरें
चौराहों पर चाहे जिसको
झौंकी जाती शमशीरें
सड़कों के सब नियम तोड़ कर
लेटा अनुशासन आडा़
रुँ -रुँ – – – – -!!
औरत जलती भर दोपहरी
हुड़दंगे मिल हाथ सेंकते
मर्यादा की बोटी -बोटी
नोंच नोंच कर हैं बिखेरते
अपनी पुस्तक से इन उनने
करुणा का पन्ना फाडा़
रुँ -रुँ बाजा रुँगताडा़ – – -!!
(आज कविता का अन्तिम अंश )
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह “मुक्ति के शंख ” से उद्धृत )