एक बार फिर

एक बार फिर
************
इसके घर बरसात हमारा घर सूखा !
इसके घर में नाज हमारा घर भूखा !
कैसा है इंसान कि इस पर लानत है !
इसके तन पर तेल हमारा तन सूखा !
इसके घर नाज – – – –
अपने हित के लिये रात दिन दौड़ रहा
आस पास के सारे रिश्ते तोड़ रहा
इसके घर मधुमास हमारा घर सूखा !
इसके घर नाज – – –
बना बना हथियार उन्हीं पे लेटा ये
बारुदों के ढेर लगा कर ऐंठा ये
एक बार ये फिर मानवता से चूका !
इसके घर बरसात- – –
सच की चादर फाड़ झूठ को ओढ़ रहा
अपने हाथ बनाये मारग छोड़ रहा
अबकी इसने फिर हिंसा का घर ढूँका !
इसके घर बरसात – – –
सदियों से जो रची सभ्यता काट रहा
संस्कृति की बहती सरिताएँ पाट रहा
एक बार इसने अपना दर फिर फूँका !
इसके घर बरसात हमारा घर सूखा ! !
(श्री प्रेमशंकर रघुवंशी जी के गीत संग्रह “सतपुडा़ के शिखरों ” से गीत उद्धृत )

You may also like...

Leave a Reply